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डॉ. अनिल दीक्षित ( शिक्षाविद )

स्थिरता की शुरुआत या अस्थिर संतुलन का भ्रम?

डॉ. अनिल दीक्षित

मध्य-पूर्व एक बार फिर वैश्विक राजनीति के केंद्र में है। ईरान और इजरायल के बीच चला महीनों का तनाव और संघर्ष अब औपचारिक युद्धविराम में तब्दील हो गया है। लेकिन क्या यह वास्तविक शांति की ओर बढ़ा कदम है या केवल एक अस्थिर संतुलन की अस्थायी सतह?

युद्धविराम की घोषणा के बावजूद क्षेत्र में अभी भी असहज शांति का माहौल है। संघर्ष विराम के बाद भी इजरायल के सीमावर्ती क्षेत्रों में सतर्कता बनी हुई है, और ईरान समर्थित गुटों की गतिविधियाँ पूरी तरह थमी नहीं हैं। हालांकि प्रत्यक्ष टकराव रुका है, परंतु मानसिक और रणनीतिक टकराव अब नए रूप में सामने आ रहा है- राजनयिक ध्रुवीकरण, गठबंधन पुनर्गठन, और ऊर्जा-आधारित कूटनीति के तौर पर। युद्धविराम के बाद की सबसे अहम विशेषता यह रही है कि खाड़ी देशों ने तटस्थता और व्यावहारिक संतुलन को प्राथमिकता दी है। सऊदी अरब और यूएई जैसे देश अब किसी पक्ष विशेष के साथ सीधे नहीं जुड़ना चाहते। उनके लिए क्षेत्रीय स्थिरता और आर्थिक पुनर्निर्माण ही प्राथमिक लक्ष्य हैं। यही कारण है कि इन देशों ने चीन और रूस जैसे बाहरी शक्तियों के साथ संवाद और सहयोग बढ़ाया है, जिससे पश्चिमी प्रभुत्व की पारंपरिक संरचना अब दरकने लगी है।

ईरान जो अब तक आक्रामक मुद्रा में था, अब युद्धविराम के बाद खुद को एक क्षेत्रीय शक्ति के रूप में स्थापित करने की दिशा में बढ़ रहा है। उसकी सामरिक आत्मनिर्भरता, मिसाइल क्षमताएं और रणनीतिक गठबंधन अब खुले तौर पर मान्यता पा रहे हैं। इससे शिया-बहुल क्षेत्रों में उसका प्रभाव और गहराएगा, जिसका असर इराक, सीरिया, लेबनान और यमन जैसे देशों की राजनीति पर भी पड़ेगा। इजरायल हालांकि फिलहाल युद्ध से पीछे हटा है, लेकिन वह अब और अधिक आंतरिक सुरक्षा, साइबर रक्षा और अंतरराष्ट्रीय जनमत को अपने पक्ष में साधने की दिशा में सक्रिय होगा। इसके साथ-साथ वह ईरान-विरोधी गठबंधनों को पुनर्संयोजित करने की कोशिश भी करेगा, विशेषकर खाड़ी के उन देशों के साथ जिनके साथ उसने अब्राहम समझौतों के तहत संबंध सामान्य किए थे।

इस परिदृश्य में सबसे उल्लेखनीय पक्ष यह है कि मध्य-पूर्व अब एक बहुध्रुवीय शक्ति-संरचना की ओर बढ़ रहा है। जहाँ पहले अमेरिका और उसके सहयोगी निर्णायक माने जाते थे, अब रूस और चीन के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। चीन की मध्यस्थता में सऊदी-ईरान संबंधों की बहाली और रूस की सीरिया में रणनीतिक उपस्थिति ने स्पष्ट कर दिया है कि अब इस क्षेत्र का भविष्य एकाधिकार नहीं, बल्कि साझेदारी और प्रतिस्पर्धा के संतुलन से तय होगा। भारत के लिए यह स्थिति रणनीतिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। युद्धविराम ने भारत को एक अवसर दिया है, जहाँ वह न केवल ऊर्जा-आपूर्ति के लिए स्थिर संबंध बना सकता है, बल्कि क्षेत्रीय संवाद में संतुलित मध्यस्थ के रूप में भूमिका भी निभा सकता है। चाबहार बंदरगाह और अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे के माध्यम से भारत की भूमिका और भी प्रभावशाली हो सकती है, यदि वह समय रहते सक्रियता दिखाए।

युद्धविराम से गोलियां, बम, मिसाइल थम गए हैं, लेकिन रणनीतिक प्रतिस्पर्धा अभी बाकी है। यह नयी सुबह आशा की किरण हो सकती है- अगर सभी पक्ष संयम, संवाद और समावेशी कूटनीति को अपनाएं। अन्यथा यह केवल एक ठहरे हुए तूफ़ान की ख़ामोशी होगी, जिसकी गूंज भविष्य में और अधिक गहरी हो सकती है।


 

 

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